वैश्वीकरण के इस दौर में पृथ्वी पर विराजमान समस्त संस्कृतियों/सभ्यताओं का पृथक्करण विलोपित होकर एक नवीन संकरित संस्कृति/सभ्यता का आगाज कर रहा है।भारतीय संदर्भ में भारतीय जनमानस में से अधिकंश अपनी सनातन संस्कृति को भूलकर पश्चिमी सभ्यता को वरीयता दे रहे है और तुलनात्मक रूप से अपनी मूल संस्कृति को हेय दृष्टि से देख रहे है।मौके का फायदा उठाते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी इसे बाजारवाद से जोड़ कर रोज-रोज नये-नये उत्सव जैसे परिवार दिवस,फादर्स डे,मदर्स डे,इत्यादि सृजित करके अपने वित्तीय संसाधन बढ़ाने में लगे हैं।हम सभी सिर्फ एकदूसरे के साथ होड मचाने में लगे हैं।परिणाम स्वरूप आज हमारे साथ सिर्फ हमारा मोबाइल फ़ोन रह गया है,न तो हमारे पास कोई मित्र बचा है और न ही कोई रिश्तेदार।हम सिर्फ दिखावे के लिए जी रहे हैं।
असल मे व्यक्तिवाद ने समाजवाद को तोड़-मरोड़ कर रख दिया है।पुरुष और महिला में समानता के नाम पर आज वैवाहिक जीवन अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं।सबसे दयनीय स्थिति शिक्षित समाज की है जबकि अशिक्षित या कम पढ़े लोगो में सामाजिक अपनत्व आज भी काफी हद तक जीवित है।कुछेक प्राकृतिक नियमों को कभी भी बदला नही जा सकता है।इसके पीछे एक कारण शिक्षा के मूल उद्देश्य को लोगो द्वारा सिर्फ आर्थिक पक्ष से जोड़कर देखना भी है।जिस दिन हम लोग शिक्षा के मूल अर्थ को समझ लेंगे उस दिन हम शायद अपनी संस्कृति और समाज के साथ न्याय कर पाएंगे......
शेष फिर