शनिवार, 26 जून 2021

वैश्वीकरण और संस्कृति

 वैश्वीकरण के इस दौर में पृथ्वी पर विराजमान समस्त संस्कृतियों/सभ्यताओं का पृथक्करण विलोपित होकर एक नवीन संकरित संस्कृति/सभ्यता का आगाज कर रहा है।भारतीय संदर्भ में भारतीय जनमानस में से अधिकंश अपनी सनातन संस्कृति को भूलकर पश्चिमी सभ्यता को वरीयता दे रहे है और तुलनात्मक रूप से अपनी मूल संस्कृति को हेय दृष्टि से देख रहे है।मौके का फायदा उठाते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी इसे बाजारवाद से जोड़ कर रोज-रोज नये-नये उत्सव जैसे परिवार दिवस,फादर्स डे,मदर्स डे,इत्यादि सृजित करके अपने वित्तीय संसाधन बढ़ाने में लगे हैं।हम सभी सिर्फ एकदूसरे के साथ होड मचाने में लगे हैं।परिणाम स्वरूप आज हमारे साथ सिर्फ हमारा मोबाइल फ़ोन रह गया है,न तो हमारे पास कोई मित्र बचा है और न ही कोई रिश्तेदार।हम सिर्फ दिखावे के लिए  जी रहे हैं।

असल मे व्यक्तिवाद ने समाजवाद को तोड़-मरोड़ कर रख दिया है।पुरुष और महिला में समानता के नाम पर आज वैवाहिक जीवन अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं।सबसे दयनीय स्थिति शिक्षित समाज की है जबकि अशिक्षित या कम पढ़े लोगो में सामाजिक अपनत्व आज भी काफी हद तक जीवित है।कुछेक प्राकृतिक नियमों को कभी भी बदला नही जा सकता है।इसके पीछे एक कारण शिक्षा के मूल उद्देश्य को लोगो द्वारा सिर्फ आर्थिक पक्ष से जोड़कर देखना भी है।जिस दिन हम लोग शिक्षा के मूल अर्थ को समझ लेंगे उस दिन हम शायद अपनी संस्कृति और समाज के साथ न्याय कर पाएंगे......

शेष फिर


गुरुवार, 24 जून 2021

रोल मॉडल होने के मायने



अभी हाल ही में  फुटबॉल के सुपरस्टार क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने यूरो चैम्पियनशिप के एक मैच के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में अपने सामने रखीं एक विश्व-विख्यात सॉफ्ट ड्रिंक  की दोनों बोतलें एक तरफ हटा दीं. उसके बाद उन्होंने वहीं रखी पानी की बोतल को उठाकर पत्रकारों को दिखाते हुए कहा – “आगुवा!” यानी पानी! कुछ सेकेंडों में ही उन्होंने जता दिया कि सॉफ्ट ड्रिंक्स को लेकर उनका क्या नजरिया है. जबकि उक्त सॉफ्ट ड्रिंक कंपनी यूरो कप का टॉप स्पांसर है।



रोनाल्डो की इस एक भगिमा ने यह किया कि कोकाकोला के शेयर गिरना शुरू हो गए. इस घटना का ऐसा जबरदस्त प्रभाव पड़ा कि कुछ ही घंटों के भीतर कम्पनी को चार बिलियन डॉलर यानी करीब 75 अरब(4billion) रुपयों का नुकसान हो गया. यह गिरावट अब भी जारी है. 

एक इंटरव्यू में उनसे इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा, “चूंकि मैं खुद सॉफ्ट ड्रिंक नहीं पीता, मैं नहीं चाहूंगा कि कोई दूसरा बच्चा मेरी वजह से ऐसा करे. मैं कोई चिकित्सक नहीं हूं, लेकिन मुझे पता है कि सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं और मैंने अपने मैनेजर को इस बारे में साफ-साफ कह रखा है कि मैं किसी भी ऐसे प्रॉडक्ट के साथ नहीं जुड़ूंगा, चाहे वह सॉफ्ट ड्रिंक हो या सिगरेट या शराब।

वैसे देखा जाए तो असल मे एक रोल मॉडल का कर्तव्य यही है कि वह अपने फॉलोवर्स के सामने उत्कृष्ट नैतिक आदर्श स्थापित करें और देश समाज मे युवाओं को अपनी संस्कृति को बाजारवाद की भेंट न चढ़ने दें।आधुनिक रोल मॉडल पैसे कमाने के चक्कर मे सही-गलत का अंतर ही भूल गए है।भारतीय रोल मॉडल को भी चाहिए कि वे रोनाल्डो की तरह उच्च नैतिक व्यवहार प्रस्तुत करके युवाओं के समक्ष आदर्श व्यवहार मानक स्थापित करें जिससे समाज को आदर्श प्रेरणा मिलें।



शनिवार, 5 जून 2021

विदेशी सोशल मीडिया बनाम सरकार

 जब से भारत सरकार ने विदेशी इंटरनेट मीडिया को नियंत्रित करने हेतु नये नियमो को मंजूरी दी है तब से इन दोनों पक्षों के बीच हायतौबा मची हुई है।एक तरफ सरकार जहाँ राष्ट्रीय संप्रभुता और सुरक्षा की दृष्टि से व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी नियंत्रण में लाना चाहती है तो दूसरी तरफ व्हाट्सअप ,ट्विटर जैसे विदेशी सोशल इंटरनेट मीडिया व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता के अधिकार की दुहाई देकर सरकारी नियमो का विरोध कर रहे हैं।वैसे देखा जाए तो दोनों ही पक्षों के तर्क महत्वपूर्ण है वशर्ते मंशा स्वच्छ हो।अभी हाल ही में माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर द्वारा नाइजीरिया के राष्ट्रपति और भारत के उपराष्ट्रपति के ट्विटर एकाउंट के साथ की गई कार्यवाही एकदम पक्षपातपूर्ण है।सोशल इंटरनेट मीडिया को यह समझना होगा कि पूरे विश्व मे एक ही प्रकार की सोच और क्रियाविधि से संचालन संभव नही है।हर एक राष्ट्र का अपना एक विशिष्ठ संविधान है और अपनी विशिष्ठ संस्कृति और जीवनशैली है।सरकार को भी यह समझना होगा कि आज के दौर में सोशल मीडिया भी हमारी आधुनिक संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया है जिसके कुछेक सार्थक परिणाम सरकारी नीतियों के लिए भी आधार बन गए है।अतः आशा है कि जल्दी ही इस दिशा में दोनों पक्ष आमजन को ध्यान में रखते हुए उचित समाधान निकालने का प्रयास करेंगे।

आभार

विनोद शर्मा

बुधवार, 11 सितंबर 2013

"सीरिया संकट: पैसा, ताकत और रणनीति का गजब खेल"

5 September 2013 at 18:50
राष्ट्रपति को पद से हटाने और कथित तौर पर
तानाशाही शासन को समाप्त करने के लिए पिछले
काफी समय से सीरिया को अंदरूनी विद्रोह से
जूझना पड़ रहा है. सीरिया के वर्तमान
राष्ट्रपति बशर अल-असद को तानाशाह करार देते हुए
विद्रोही गुट सक्रिय हो गए हैं जिनका उद्देश्य
मौजूदा सरकार को गिराकर लोकतांत्रिक राष्ट्र
की स्थापना करना है.
सीरिया की सीमा में उग्र प्रदर्शनों का दौर अभी चल
ही रहा था कि इस बीच अमेरिका के सीरिया पर
आक्रमण करने जैसी खबर से हड़कंप मच गया. हालांकि यह
मात्र अफवाह ही थी क्योंकि इजराइल और अमेरिका के
परमाणु परीक्षण को सीरिया पर हमले के तौर पर
देखा जाने लगा था जिसकी वजह से वैश्विक शेयर बाजार
डूबने भी लगा था. खैर यह तो मात्र एक अफवाह
थी लेकिन इस अफवाह ने भविष्य में होने वाले
घटनाक्रमों की एक तस्वीर जरूर पेश कर दी है.
सीरिया में राष्ट्रपति के खिलाफ चल रहे
प्रदर्शनों को अंदरूनी हालातों से जरूर देखा जा रहा है
लेकिन अपने दुश्मनों और सॉफ्ट टार्गेट को शिकस्त देने के
लिए अमेरिका की रणनीति को भी नजरअंदाज
नहीं किया जा सकता.
सुपरपॉवर बन चुका अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है
कि उसे अपने मार्ग में आने वाली रुकावटों से किस तरह
निपटना है. उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच हुई
तनातनी ने तो तीसरे विश्वयुद्ध के हालात
बना ही दिए थे लेकिन अब सीरिया पर मंडरा रहे
खतरों के बादलों का ठीकरा अगर अमेरिका के सिर
फोड़ा जाए तो भी गलत नहीं होगा.
अमेरिका की यह विशेषता रही है कि वह अपने
दुश्मनों पर सीधा निशाना नहीं लगाता. वह आंतरिक
विद्रोह की भावना को भड़काता है और सरकार
द्वारा विद्रोहियों के दमन को लोकतंत्र का हनन
करार दे दिया जाता है. सरकार
द्वारा की जा रही कार्यवाहियों को दमनकारी बताते
हुए वह सीधे सत्ता पर आसीन सरकार पर प्रहार
करता है. अमेरिका द्वारा प्रायोजित इस आंतरिक
विद्रोह के अंतर्गत सीरिया के अंदरूनी हालातों को इस
कदर बिगाड़ दिया गया है कि वैश्विक स्तर पर
सीरिया को दमनकारी राष्ट्र समझा जाने लगा है. यह
बिल्कुल वैसा ही है जैसा इराक और अफगानिस्तान के
साथ किया गया था.
अमेरिका की चाह दुनियाभर के प्राकृतिक स्त्रोतों पर
कब्जा जमाने के साथ-साथ सभी देशों के भीतर
अपनी छवि को लेकर एक खौफ बरकरार रखने की भी है.
अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है कि अगर
अपनी मौजूदा छवि का फायदा ना उठाया गया तो बहुत
हद तक संभव है कि कल कोई देश
उसकी सत्ता को चुनौती देने में कामयाब हो जाए. थोड़े
बहुत समय अंतराल के बाद किसी ना किसी देश में आंतरिक
विद्रोह की खबर और फिर उस विरोध में अमेरिका के
हस्तक्षेप की खबर उठती है. कुछ समय पहले लीबिया के
शासक गद्दाफी और इराक के तानाशाह सद्दाम को कुछ
इसी रणनीति के तहत मौत के घाट उतारा गया था.
कहते हैं जिसके पास ताकत, पैसा और
सही रणनीति हो वो कुछ भी कर सकता है और
अमेरिका के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात हैं. ताकत और पैसे
की तो अमेरिका के पास कोई कमी नहीं है रही बात
रणनीति की तो जिस तरह वह
अपनी सत्ता का विस्तार देश के बाहर कर रहा है उससे
इस बात में भी कोई संदेह नहीं रहता कि अमेरिका के
पास कमाल के रणनीतिज्ञ भी हैं.
जिस देश पर अमेरिका हमला करवाता है वहां कथित
तानाशाही सरकार को उखाड़कर अपने मनचाहे
प्यादों को तैनात कर दिया जाता है जिससे कि संयुक्त
राष्ट्र संघ में या फिर अन्य किसी भी मौके पर संबंधित
देश अमेरिका का गुणगान करें और उसके विरोध में
अपनी आवाज उठा ही ना पाएं. लीबिया, इराक और
अफगानिस्तान के बाद अब उसका निशाना सीरिया है.
हैरानी की बात तो ये है कि शायद ही कोई ऐसा मुल्क
हो जो अमेरिका की इस शातिर रणनीति से परिचित
ना हो लेकिन खुद पर ही आंच ना गिर जाए इसलिए कोई
भी अपनी आवाज उठाना नहीं चाहता. यह तो बस शुरुआत
है. बढ़ते हौसलों की वजह से अमेरिका अगली बार किसे
निशाना बनाता है यह बात देखनी होगी.